Jehadan - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | जेहादन - भाग 1

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जेहादन - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव 

वह चार साल बाद अपने घर पहुँची लेकिन गेट पर लगी कॉल-बेल का स्विच दबाने का साहस नहीं कर पाई। क़रीब दस मिनट तक खड़ी रही। उसके हाथ कई बार स्विच तक जा-जा कर ठहर गए। जून की तपा देने वाली गर्मी उसे पसीने से बराबर नहलाए हुए थी। माथे से बहता पसीना बरौनियों पर बूँद बन-बन कर उसके गालों पर गिरता, भिगोता और फिर उसके स्तनों पर टपक जाता। 

चढ़ती दुपहरी, चढ़ता सूरज आसमान से मानो अग्नि-वर्षा कर रहे थे। उसका गला बुरी तरह सूख रहा था। पपड़ाए होंठों पर जब वह ज़ुबान फेरती तो उसे ऐसा लगता मानो उन पर नमक की पर्त चढ़ी हुई है। सड़क पर इक्का-दुक्का लोगों के अलावा कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था। उसने गेट के बग़ल में दीवार पर लगी उस नाम शिला-पट्टिका को ध्यान से देखा, जिस पर सबसे ऊपर उसके माता-पिता चंद्र-भूषण त्रिवेदी, निरुपमा त्रिवेदी और उसके ठीक नीचे चारों भाई-बहनों का नाम ख़ुदा हुआ था। 

उसकी आँखें एकदम से छल-छला आईं, जब क्रम से लिखे नामों में तीसरे नंबर पर अपने नाम को किसी नुकीली चीज़ से, उसी तरह चोट दे-दे कर मिटाया हुआ पाया, जिस तरह चिकने हो चुके सिल-बट्टे की छेनी-हथौड़ी से छिनाई की जाती है। उसके कानों में माँ-बाप की आख़िरी बार कही गई बातें, ‘तू हमारे कुल-ख़ानदान के लिए एक शर्मनाक अभिशाप है। हमारे लिए ख़त्म हो गई है। अब हम कभी तुम्हारी मनहूस छाया भी नहीं देखना चाहते।’ गूँजने लगीं। वह सिसक पड़ी। एक बार फिर उसका हाथ कॉल-बेल स्विच तक जाकर लौट आया। 

उसे जब लगा कि वह अपनी रुलाई पर कंट्रोल नहीं कर पा रही है, कुछ देर और रुकी रही तो फूट-फूट कर रो पड़ेगी, तो एक भरपूर दृष्टि नाम शिला-पट्टिका और ऊपर तीसरी मंज़िल तक डालकर वापस रेलवे स्टेशन की तरफ़ चल दी। क़दम स्टेशन की तरफ़ मुड़ते ही उसकी रुलाई एकदम से फूट पड़ी। उसने जल्दी से अपना चेहरा दुपट्टे को लपेट कर ढक लिया, और तेज़-तेज़ क़दमों से चलती रही। 

कुछ ही देर में उसे लगा कि चक्कर आ रहा है, यदि वह बैठ न गई तो धूप से जलती सुलगती सड़क पर गिर पड़ेगी। मगर कहाँ बैठे, कोई भी जगह उसे सुझाई नहीं दे रही थी। न ही कोई रिक्शा, ऑटो दिखाई दे रहा था। आख़िर वह सड़क किनारे फुट-पाथ पर लोहे के बने एक ट्री-गार्ड से सट कर बैठ गई। 

पीठ पर से अपने ‘बैक बैग’ को उतारा, पानी की बोतल निकाली, मगर वह पहले से ही ख़ाली थी। उसे लगा कि जैसे शरीर का सारा पानी निचुड़ गया है। दूर-दूर तक उसे कई ट्री-गार्ड तो दिखाई दे रहे थे, मगर कोई पेड़ दिखाई नहीं दे रहा था। किसी-किसी में सूखे पौधे के अवशेष ज़रूर दिख रहे थे। 

चिलचिलाती धूप में सड़क पर उसे इस तरह बैठा देखकर, इक्का-दुक्का निकल रहे लोगों में से एक महिला उसके पास रुकी। उसने एक छाता धूप से बचने के लिए सिर के ऊपर लगाया हुआ था। उसने थोड़ा झुक कर उससे पूछा, “आप इतनी तेज़ धूप में इस तरह सड़क पर क्यों बैठी हुई हैं, आपकी तबीयत तो ठीक है न, मैं आपकी कोई हेल्प कर सकती हूँ?” 

उसने सिर ऊपर उठाकर उसे देखा, उसका छाता उन दोनों के सिर पर छाया किए हुए था। वह अचानक हेल्प की बात सुनकर समझ नहीं पाई क्या बताए। सबसे पहले तो उसने उसे पहचानने की कोशिश की, कि यह इसी कॉलोनी की, उसके परिवार की परिचित तो नहीं है, और उसे पहचान कर यह पूछने लगे कि, अरे इतने वर्षों बाद दिखाई दी और यहाँ सड़क पर क्यों बैठी हो? 

जब उसे विश्वास हो गया कि बड़ी सी बिंदी लगाए यह भद्र महिला इस कॉलोनी की नहीं है, और न ही उसके परिवार की परिचित तो उसने कहा, “मैं स्टेशन जा रही हूँ, कोई रिक्शा मिला नहीं, धूप बहुत ज़्यादा है, मेरा पानी भी ख़त्म हो गया है, गला सूख रहा है, चक्कर सा आने लगा तो मैं यहाँ बैठ गई।”

यह सुनते ही उस महिला ने अपने बैग से पानी की बोतल निकाल कर उसे देते हुए कहा, “लीजिए, पहले आप पानी पीजिए, इस समय तो यहाँ पर रिक्शा वग़ैरह मिलना मुश्किल है। मैं भी परेशान हो गई तो पैदल ही चल दी। अभी तो कैब ही बुलायी जा सकती है। स्टेशन तो यहाँ से काफ़ी दूर है। धूप में वहाँ तक पैदल जाना ठीक नहीं है। आप कैब यहीं बुला लीजिए।”

भद्र महिला की बात सुनकर उसके दिमाग़ में तुरंत ही आया कि, इतनी मामूली-सी बात उसके दिमाग़ में क्यों नहीं आई। वह ऐसा क्यों नहीं सोच पाई। उसे चुप देख कर महिला ने पूछा, “क्या बात है, आप क्या सोच रही हैं?” 

महिला के प्रश्न से वह थोड़ा चौंक सी गई, लेकिन फिर तुरंत ही अपने को सँभालती हुई बोली, “जी आप ठीक कह रही हैं, कैब ही बुलानी पड़ेगी। आपको किधर जाना है?” 

महिला ने जो स्थान बताया उसे सुनकर उसने कहा, “आपको तो अपोज़िट साइड में जाना है।”

“हाँ, बस दस मिनट की दूरी है।”

महिला बड़ी अनुभवी दिख रही थी, बात करती हुई वह लगातार उसके चेहरे को पढ़ने का प्रयास कर रही थी। उसने आख़िर पूछ लिया, “आप बहुत परेशान सी दिख रही हैं, आँखों में आँसू भी हैं, क्या कोई बड़ी समस्या है।”

यह सुनते ही उसने ज़बरदस्ती चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा, “नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। बस तेज़ धूप से परेशान हो गई हूँ। पसीना आँखों में चला गया, इसीलिए आँसू आ गए।” 

इसी बीच उसने कैब बुक किया। जब-तक कैब आई नहीं, वह महिला उससे बातें करती रही, उसे छाते की छाया में लिए रही, कैब के आते ही पानी की बोतल फिर से उसे पकड़ाती हुई बोली, “आप पानी और पी लीजिए।”

 उसने कहा, “आपको भी ज़रूरत पड़ेगी।”

“नहीं, मैं तो दस मिनट में पहुँच जाऊँगी।”

उसने एक बार फिर से पानी पीकर उसे धन्यवाद दिया और स्टेशन की तरफ़ चल दी। स्टेशन पहुँच कर वह बड़े असमंजस में इधर से उधर कुछ देर टहलती रही। वापसी की ट्रेन क़रीब चार घंटे बाद थी। उसने प्लैटफ़ॉर्म टिकट लिया और एक सीट पर बैठ गई। कोई ट्रेन आने वाली थी। पैसेंजर अपने-अपने सामान के साथ ट्रैक से थोड़ा पहले खड़े थे। सभी बार-बार जिस तरफ़ से ट्रेन आने वाली थी, उसी ओर देख रहे थे। 

मिनट भर भी न बीता होगा कि, भारतीय रेलवे के आमूल-चूल परिवर्तन, आधुनिक टेक्नॉलोजी की प्रतीक ‘वंदे-भारत’ ट्रेन आ गई। जिसे वह देखती रही। जल्दी-जल्दी सभी यात्री बैठे और वह दो मिनट में फर्राटा भरती हुई चली गई। यात्रियों से भरे प्लैटफ़ॉर्म पर जो एक हलचल सी थी, वह क़रीब-क़रीब सन्नाटे में परिवर्तित हो गई। 

लेकिन उसके दिमाग़ में हलचल बहुत बढ़ गई। वह अपनी हालत उसी ख़ाली हो चुके सन्नाटे से भरे प्लैटफ़ॉर्म की तरह पा रही थी, जहाँ कुछ समय पहले तक लोग ही लोग थे, हर तरफ़ हलचल थी, लेकिन ट्रेन आई, सबको लेकर चल दी, पीछे सन्नाटा छोड़ गई। उसे अब आँखों के सामने बार-बार घर के गेट पर लगी नाम वाली शिला-पट्टिका दिख रही थी। जिसमें से उसका नाम घृणा-पूर्वक हटाया गया था। 

उसकी आँखें फिर भर आईं। बीती बातें याद आने लगीं। सब-कुछ बड़े सिलसिलेवार ढंग से। उसे बड़ा पछतावा होने लगा, अपने उस निर्णय और काम पर जिसके कारण आज दुनिया में वह हर तरफ़ से अकेली है। शिला-पट्टिका से उसके नाम को उसके माँ-बाप ने ही मिटा दिया। बरसों पहले का वह दृश्य भी उसकी आँखों के सामने चल पड़ा, जब घर के गेट तक उसके माँ-बाप, छोटा भाई और बहनें छोड़ने आए थे। सभी की आँखें नम थीं। 

वह जब माँ से गले मिली थी तो माँ बहुत भावुक हो गई थी, और उसके चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ते हुए कहा था, “बेटा अपना ख़ूब ध्यान रखना। किसी अपरिचित से कोई बातचीत नहीं करना। ऑफ़िस के बाद ज़्यादा देर तक इधर-उधर नहीं जाना।” पापा ने भी ऐसा ही समझाया था। नोएडा पहुँच कर उसने बहुत ख़ुशी-ख़ुशी अपनी नौकरी ज्वाइन की थी। उसे वहाँ पूरा ऑफ़िस वर्क-लोड के बोझ से झुका हुआ दिखा। 

पहले ही दिन वह भी वर्क-लोड के बोझ तले दबा दी गई। जब क़रीब नौ बजे वह थोड़ी ही दूर पर अपनी मौसी के यहाँ पहुँची तो थक कर बिल्कुल चूर हो चुकी थी। खाना वग़ैरह खाकर उसने घर पर सभी से बात की और बेड पर लेटते ही बेसुध होकर सो गई। उसकी यही दिनचर्या हो गई। सुबह उठते ही ऑफ़िस की तैयारी करना, फिर आठ-दस घंटे काम करके घर पहुँचना और सो जाना। 

वैसे तो उसके रिश्तेदार बहुत अच्छे थे, उसके खाने-पीने, चाय-नाश्ता का पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन उसने महसूस किया कि, वह घर में अपनी ही तरह से रहने की जो आज़ादी चाहती है, वह अपने ही घर में मिल पाएगी। तो वह आठ-दस दिन के अंदर ही एक दूसरी जगह पर पेइंग-गेस्ट बनकर रहने लगी। 

ऑफ़िस से पहले दिन पेइंग-गेस्ट हॉउस पहुँच कर उसे लगा कि जैसे वह बरसों बाद किसी क़ैद से बाहर आई है। संयोग से अगले दिन रविवार की छुट्टी थी। वह देर से सोकर नौ बजे उठी। रिश्तेदार के यहाँ संकोच में जल्दी ही उठना पड़ता था। 

एक महीने बाद पहली सैलरी मिलने पर उसने अपने लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें ली थीं। उसके बाद माँ-बाप, भाई-बहनों के लिए ऑन-लाइन गिफ़्ट बुक किए थे। फोन पर सभी से बहुत देर तक बातें की थीं। माँ-बाप ने ख़ूब आशीर्वाद देते हुए कहा था, “बेटा बहुत ध्यान रखना, अकेली रह रही हो।” माँ बहुत भावुक हो रही थी। कहा, “बेटा आस-पास कोई मंदिर हो तो भगवान के दर्शन करके प्रसाद चढ़ा देना। कमरे में भी भगवान की फोटो रख लो, घर से निकलते समय उन्हें प्रणाम करके ही निकला करो और आने पर भी प्रणाम किया करो। ईश्वर को सदैव मन में बसा के रखो, इससे तुम्हें बहुत एनर्जी मिलेगी, हमेशा तुम सही रास्ते पर आगे बढ़ती रहोगी।”